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“मजदूर ही तो हैं” प्रवासी मज़दूरों की दयनीय स्थिति को दर्शाती डॉ सुनील कुमार मिश्र की कविता पर परिचर्चा

कोरोना महामारी और तालाबंदी के करना गरीब मज़दूर सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं | ये मज़दूर जिन्होंने अपने पसीने से सींच कर शहर को बनाया आज वही शहर और उसके लोग मज़दूर को इस संकट की परिस्थिति में छोड़ दिया | इस परिचर्चा में डॉ सुनील कुमार मिश्र मज़दूरों के व्यथा को उजागर कर रहे हैं |

मजदूर ही तो हैं

मरते हैं तो मरने दो मजदूर ही तो हैं,

बेबस लाचार गरीब मजबूर ही तो हैं |

छले जाते हैं ये ताउम्र ज़िन्दगी में,

वक्त के मारे मिट्टी के कोहिनूर ही तो हैं ||

दुःख में मुस्कुराने का हुनर आता इन्हें,

सदियों से ही कुचला जाता है जिन्हें |

कीड़े-मकोड़े से ज्यादा वजूद नहीं कोई,

सुख गढ़ते हैं पर सुख से दूर ही तो हैं ||

गाँव से शहर भाग आते हैं अभागे,

लाते हैं साथ ये जिम्मेदारियों के धागे |

बहन का सम्मान और पिता की लाठी,

माँ के आँखों के ये नूर ही तो हैं ||

गर्मी जाड़ा हो या भयंकर बरसात,

सुहानी सुबह हो या फिर काली रात |

हर रोज ही अपनी हड्डियों को गलाते,

खुद के अरमान जलाते तन्दूर ही तो हैं ||

ले आते हैं किसी को जहाज में बिठाके,

भगा देते हैं आप साहब इनको रुलाके |

बहुत कुछ कहती हैं नम आँखें इनकी,

कसूर इतना है कि बेक़सूर ही तो हैं ||

बड़ा दर्द है ‘दीप’ इनकी सिसकियों में

मोल नहीं जिनका सत्ता की गलियों में |

मौत पर बहा देते कुछ घड़ियाली आँसू,

नेताओं के लिए ये गैर-जरूर ही तो हैं ||

जिस शहर को अपने पसीने से सींचा,

उस शहर से लौट रहे बेगरूर ही तो हैं |

भूलकर जख्म लौट आयेंगे कल फिर,

आपके नजर में ये जी-हुजूर ही तो हैं ||

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